प्यास बुझती नहीं, पेट भर जाता है

प्यास बुझती नहीं,रह जाती हैपेट भर जाता हैफिर हमदोबाराप्यासे होनेका इंतज़ारकरते हैंफिरप्यास लगती हैफिरहम पानीपीते हैंपर प्यासकभीनहीं बुझतीहमेशा पेटभर जाता है -अभिषेक गुप्ता

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अलग करते हैं

ये हिंदू को मुसलमान से अलग करते हैंये सिख को ईसाई से अलग करते हैंइन सत्ता के लोभियों का काम है तोड़नाअसल में ये भाई को भाई से अलग करते हैं पहले तो करते हैं वादे रोज़गार केमौके पर बकरे को कसाई से अलग करते हैंयूँ तो पाक दामन होने के दावे करते हैं हज़ारअसल…

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छोड़ो भी मंदिर-मस्जिद के नाम पर लड़ना, करो कोशिश एक साथ मिल जुल कर रहना

सरकार, शासन, न्यापालिका और प्रशासन सब इन दिनों चर्चा में हैं। सब पर कहीं न कहीं उंगलियां उठ रही हैं। दरअसल जिस तरह से देश में मंदिर मस्जिद को लेकर विवाद चल रहा है ऐसे में एक बात तो तय है कि सुकून कहीं नहीं है। न ही हिन्दू होने में न ही मुसलमान होने…

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एक ख्याल उनके नाम का

एक शख़्स बे-मिसाल देखा हैनर्गिसी-आंखें, काली पलकेंरंग गोरा ,सुनहरे बालरोने पर चेहरा लाल देखा है वो जो हसें,जग हसे उनकी हंसी में हीअब किसी एक की हंसी बसेसूरत से भोली सीरत का कमाल देखा हैक्या दूं उनको मिसाल जिन्हें बे-मिसाल देखा है हां माना खताएं होती हैं हमसेभटके हैं हम कई बार पर मेरेभटकने में…

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रंगों से तुम हमारी पहचान करते हो

रंगों से तुम हमारी पहचान करते होलाल से हिंदू हरे से मुसलमान करते हो हम हैं एक,एक है रंग खून का,फिर क्यूफैला कर नफ़रत यूं सरे आम करते हो पसंद है सबको सुकून-ए-क़ल्ब,तो क्योंनन्हें परिंदो को यूं बे-जान करते हो माना है मज़हब अलग,पर खुदा एक हैफिर क्यों मज़हब पर कत्ल-ए-आम करते हो फैला कर…

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जाने कैसे वो खुद को मर्द बताते हैं

जाने कैसे वो खुद को मर्द बताते हैंवो बेक़सूर पे बिना वजह हाथ उठाते हैं भूल कर सारी मर्यादाभरी महफिल में वो यूँ गंदी नजरों से घूर जाते हैं खुदा के खौफ से भी वो दरिंदे ना घबराते है गुनाह करके भी ख़ुद को पाक साफ बताते हैं है ये चाल उनकी,जाने कहाँ से वो ये हुनर…

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तू सही मैं गलत, तू एक मैं अलग

तू सही मैं गलततू एक मैं अलगतू अंधेरी रात का चांदमैं चांद में लगे दाग़ सा तू हक़ीक़तमैं ख़्वाब सातू मधुर गीतमैं बदसुरे राग सा तू जलता सूरजमैं बुझे चिराग़ सातू शहजादीमैं गरीब नवाब सा तू रह होश मेंमुझे करके बेहाल जरातू रख ख्याल जरामुझे छोड़ दे मेरे हाल जरा कैसा तेरा मेरा वास्ताअलग है…

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वो औरत है जनाब

वो बिन कसूर दर्द बेहिसाब सहती हैएक बार नहीं महीने मे सात-सात बार सहती हैउन दिनों वो सहमी सी रहती हैशर्म से बातें भी कहां किसी से किया करती है। क्या मंदिर क्या मस्जिद क्या घाट किनारेअब तो रसोई में जाने पर भी पाबंदी रहती हैकसूर ना होकर भी कसूरवार वो रहती हैये एक नहीं…

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उम्मीद की एक रोशनी

बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाबमैं, मेरी तन्हाई चार दिवारी और चंद किताब घड़ी की टिक-टिक, काली सियाह अंधेरी रातबढ़ती उम्र, मांगती नाकामयाबी का हिसाब फिर पूछूं जो खुद से सवाल, किया क्या अब तकगहरी सोच, खामोश लब, नहीं मिलता कोई जवाब ‘उम्मीद’ ही सोच के समंदर में डूबती कश्ती को सहारा देतीआवाज़…

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किसी में ज़्यादा किसी में कम है

किसी में ज़्यादा किसी में कम हैयहां हर शख्स की जिंदगी में गम है कोई खुश है कच्चे मकानों मेंकिसी के लिए महल भी कम है कोई छुपा लेता है अपने आंसूकिसी की आंखें आज भी नम है बद-हाली से कई हार चुके हैं ये जंगजीतेगा वही जिसमें जीतने का दम है। मोहम्मद इरफ़ान

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